२० जून, २०२०
एमएसएमई म्हणजे काय ?
एमएसएमई म्हणजे काय ?
Micro अत्यंत लहान
यंत्रसामग्री किंवा
उपकरणांमध्ये गुंतवणूक 1 कोटींपेक्षा
जास्त नसावी आणि वार्षिक उलाढाल रु. 5 कोटी पेक्षा
जास्त नाही असे उद्योग ह्या वर्गात येतात.
Small लहान
यंत्रसामग्री किंवा
उपकरणांमध्ये गुंतवणूक 10 कोटींपेक्षा
जास्त नसावी आणि वार्षिक उलाढाल रु. 50 कोटी पेक्षा
जास्त नाही असे उद्योग ह्या वर्गात येतात.
Medium मध्यम
यंत्रसामग्री किंवा
उपकरणांमध्ये गुंतवणूक 50 कोटींपेक्षा
जास्त नसावी आणि वार्षिक उलाढाल रु. 250 कोटी पेक्षा
जास्त नाही असे उद्योग ह्या वर्गात येतात.
सुधारित वर्गीकरण
1 जुलै 2020 लागू
११ जून, २०२०
लोन का गारंटर बनने के क्या जोखिम हैं?
कोरोना महामारी के दौर में लोगों की सैलरी कट रही है. नौकरियां जा रही हैं. अर्थव्यवस्था में मंदी है. ऐसे में लोन के डिफॉल्ट का जोखिम भी बढ़ा है. डिफॉल्ट की संख्या पर अंकुश लगाने के लिए आरबीआई ने बैंकों और वित्तीय संस्थानों से ग्राहकों को छह महीने का मोरेटोरियम (लोन की ईएमआई के भुगतान पर रोक) देने के लिए कहा है. पहले उसने मार्च से मई तक यह राहत दी थी. अब इसे बढ़ाकर अगस्त तक कर दिया है. जानकारों का कहना है कि इससे लोन के डिफॉल्ट की समस्या टल गई है. लेकिन, खत्म नहीं हुई है. लोन का डिफॉल्ट होना उन लोगों के लिए भी बुरी खबर है जो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के कर्ज में गारंटर हैं. बैंक सभी लोन के लिए गारंटर पर जोर नहीं देते हैं. लेकिन, जब गारंटी पर्याप्त नहीं होती है और उन्हें कर्ज के चुकाए जाने पर संदेह होता है तो वे ऐसा करने के लिए कहते हैं. बड़ी राशि के एजुकेशन लोन के लिए गारंटर का होना जरूरी है.
गारंटर बनने से पहले सोच-विचार लें
कर्ज लेने वाला व्यक्ति अमूमन अपने दोस्तों या करीबी रिश्तेदारों को गारंटर बनने के लिए पकड़ता है. ऐसा कोई व्यक्ति अगर आपके पास आता है तो सबसे पहले उसके लोन अदा करने की क्षमता को देख लें.
इसमें अगर ध्यान नहीं रखा गया तो यह आपकी रातों की नींद उड़ा सकता है. इंडिया मनी डॉट कॉम के सीईओ और संस्थापक सीएस सुधीर कहते हैं, ''ज्यादातर लोग संबंधों के चलते गारंटी लेने के लिए तैयार हो जाते हैं. लेकिन, बाद में उन्हें न केवल पैसों से नुकसान हो सकता है, बल्कि संबंध टूटने का भी खतरा उठाना पड़ता है.''
जोखिम को जानें
कर्ज लेने वाला व्यक्ति अगर डिफॉल्ट करता है तो इसके पेमेंट का बोझ गारंटर पर पड़ता है. इसके अलावा भी कई जोखिम हैं, जिनसे उसका सामना पड़ सकता है. किसी और के लोन की गारंटी लेने से आपके लोन की पात्रता पर भी असर पड़ता है. देनदारी के संदर्भ में कर्ज लेने वाले और गारंटर में कोई खास अंतर नहीं होता है. फर्क सिर्फ इतना होता है कि ईएमआई कर्ज लेने वाले के खाते से कटती है.
पैसा बाजार डॉट कॉम में डायरेक्टर और हेड (अनसिक्योर्ड लोन) गौरव अग्रवाल ने कहा कि गारंटर बनने से पहले व्यक्ति को भविष्य की अपनी लोन की जरूरतों के बारे में विचार कर लेना चाहिए. बैंक बाजार के सीईओ आदिल शेट्टी कहते हैं कि कर्ज लेने वाला अगर डिफॉल्ट करता है तो इसका असर गारंटर के क्रेडिट स्कोर पर भी पड़ता है. गारंटर की डिटेल्स भी क्रेडिट ब्यूरो के पास जाती हैं. कर्ज लेने वाले व्यक्ति और गारंटर दोनों को डिफॉल्ट के मामले में एक तरह से देखा जाता है.
किसी की गारंटी ले चुके हैं तो क्या करें?
अगर आप पहले ही गारंटर हैं तो आपको सावधान रहने की जरूरत है. बैंक बाजार के शेट्टी कहते हैं कि कर्ज लेने वाले व्यक्ति से अनौपचारिक रूप से संपर्क में रहें. इस बात को सुनिश्चित करें कि लोन का रिपेमेंट ठीक से हो. कर्ज देने वाले बैंक से भी संपर्क में रहें. इसके अलावा अपना क्रेडिट स्कोर भी नियमित रूप से चेक करें. अगर कोई ऊंच-नीच होगी, तो वह आपके स्कोर में दिखेगी. क्रेडिट स्कोर को नियमित चेक करने से आपकी साख पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
“Krantibazar” संपूर्ण आशिया खंडात आपले नेटवर्क वाढवत आहे. आज आशिया खंडातील ग्रामीण जनतेचे प्रश्न मांडण्यासाठी हक्काचे व्यासपीठ, ग्रामीणकला - साहित्य- संस्कृतीचे, संरक्षण आणि संवर्धन करण्याचा विडा उचलणारी संस्था म्हणून “Krantibazar” ला ओळखले जात आहे. ग्रामीण जीवनाप्रती आवड असणार्या सर्वाना “Krantibazar” हे एक हक्काचे जीवन महाविद्यालय वाटत आहे. ग्रामिणी (ग्रा.प्र.), कृषी या बरोबरच ग्रामीण विकासासाठी आवश्यक त्या सर्व विषयांना वाव देण्यसाठी आमची टीम कार्यरत आहे.महामहीम डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम यांच्या मार्गदर्शनानुसार आम्ही प्रामाणिकपणे, सामाजिक मूल्यांची जोपसना करून अत्यंत पारदर्शकपणे “साधी राहणी - उच्च विचारसरणी” या उक्तीप्रमाणे जनसेवेची नवी ध्येये गाठत आहोत.आम्ही आपल्यास संधी देत आहोत, आमच्या या उपक्रमात सामील होण्याची... नव्या गोष्टी शिकण्याची... स्वत: आत्मसात केलेले ज्ञान इतरांना शिकवून करोडो रुपये कमावण्याची !!
सैंक्शन होने के बाद भी नहीं दे रहे लोन !
मुंबई : कोरोना महामारी के बीच कंपनियों ने कर्मचारियों की सैलरी घटाई है. कई लोगों को छंटनी का सामना करना पड़ा है. इसका असर अब रियल एस्टेट सेक्टर पर दिखना शुरू हो गया है. बिल्डरों और विभिन्न प्रोजेक्टों में फ्लैट बुक कराने वाले खरीदारों को इन दिनों एक नई तरह की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. बैंक अब होम लोन देने में आनाकानी कर रहे हैं. बैंकों ने जिन फ्लैट खरीदारों का लोन सैंक्शन (आवंटित) किया था, उनसे आगे का लोन जारी करने के लिए दोबारा नई सैलरी स्लिप जमा करने के लिए कहा जा रहा है. उन्हें डर सता रहा है कि कंपनियों में छंटनी और वेतन कटौती से कहीं उनका लोन खतरे में न पड़ जाए. वेतन कटने या नौकरी जाने से ग्राहक लोन डिफॉल्ट कर सकते हैं.
कंपनियों में सैलरी में कटौती और व्यापक स्तर पर छंटनी के कारण बैंक पहले ही सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि उनका लोन नहीं डूबे और उन्हें लोन की ईएमआई समय पर मिलती रहे. बिल्डरों का कहना है कि उनके कई ग्राहकों ने यह शिकायत की है कि पिछले दो महीने से बैंक उन्हें लोन देने में आनाकानी कर रहा है. मुंबई स्थित एक बिल्डर ने बताया, ''कई मामले ऐसे हैं, जिनमें बैंक फ्लैट के खरीदारों को 20 फीसदी लोन पहले ही जारी कर चुके हैं. लेकिन, अब लॉकडाउन के बाद बाकी का लोन देना बंद कर दिया है.'' Source ET News
सांगा आणि कमवा ही संकल्पना कमाई करण्याची सोपी - सहज पद्धत
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कंपनियों में सैलरी में कटौती और व्यापक स्तर पर छंटनी के कारण बैंक पहले ही सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि उनका लोन नहीं डूबे और उन्हें लोन की ईएमआई समय पर मिलती रहे. बिल्डरों का कहना है कि उनके कई ग्राहकों ने यह शिकायत की है कि पिछले दो महीने से बैंक उन्हें लोन देने में आनाकानी कर रहा है. मुंबई स्थित एक बिल्डर ने बताया, ''कई मामले ऐसे हैं, जिनमें बैंक फ्लैट के खरीदारों को 20 फीसदी लोन पहले ही जारी कर चुके हैं. लेकिन, अब लॉकडाउन के बाद बाकी का लोन देना बंद कर दिया है.'' Source ET News
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इन बैंकों का कर्ज हुआ सस्ता !
मुंबई : बैंकों का कर्ज पर ब्याज दर घटाने का सिलसिला जारी है. अब इसमें बैंक ऑफ बड़ौदा, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और एचडीएफसी बैंक भी शामिल हो गए हैं. इन सभी ने मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड्स बेस्ड लेंडिंग रेट (एमसीएलआर) में कटौती का एलान किया है.
सरकारी क्षेत्र के बैंक ऑफ बड़ौदा ने एमसीएलआर में 0.15 फीसदी और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया ने 0.10 फीसदी की कमी की है. बैंक ऑफ बड़ौदा की कटौती 12 जून और यूनियन बैंक की 11 जून से प्रभावी होगी. Source ET
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सरकारी क्षेत्र के बैंक ऑफ बड़ौदा ने एमसीएलआर में 0.15 फीसदी और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया ने 0.10 फीसदी की कमी की है. बैंक ऑफ बड़ौदा की कटौती 12 जून और यूनियन बैंक की 11 जून से प्रभावी होगी. Source ET
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कर्जासाठी
कर्ज मिळविण्यासाठी आवश्यक दस्तऐवज म्हणून वापरला जातो.
लहान व्यावसायिक, दुकानदार, हॉटेल, टपरी, इतर छोटे मोठे व्यावसयिक यांचा उत्पन्नाचा स्त्रोत पुरावा म्हणून ही उपयोगात येते. जर एखाद्या कडे मागील ३ वर्षाचे ITR असतील तर त्याला कर्ज लवकर व कमी कागदपत्रात मिळते. तसेच व्याजदर ही माफक मिळतो. याचाच अर्थ हा आहे कि व्याज सवलत सुद्धा मिळू शकते. Read More...
२ जून, २०२०
लक्ष्मी आली द्यायला ! पदर पसरा घ्यायला !!
मंगळवार, जून ०२, २०२०
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१२ एप्रि, २०२०
महाराष्ट्र विरोधी मोदी । अन मंत्री झाल्यात नंदी ।।
एवढी मोठी बातमी पण सरकारच्या तुकड्यांवर जगणाऱ्या एकही मराठी मिडीयाने कवर केली नाही. कोरोनाशी लढण्यासाठी कंपन्या जी मदत राज्य सहायता निधीला करतील ती CSR म्हणजे Corporate Social Responsibility अंतर्गत येणार नाही. पण जर तीच मदत PM Care फंडला करत असतील तर मात्र ती मदत CSR अंतर्गत येईल.
CSR ला मराठीत 'व्यवसायाची सामाजिक जबाबदारी' असेही म्हटले जाते. जसे कि नावावरून स्पष्ट होईल. 2013 मध्ये व्यावसायिक कंपन्यांची समाजाप्रती जबाबदारी निश्चित करण्यात आली. भारतीय कंपनी कायदा 2013 नुसार 500 कोटी किंवा त्याहून अधिक निव्वळ मालमत्ता असणारी किंवा 1000 कोटींची उलाढाल किंवा 5 कोटींचा निव्वळ नफा असलेल्या कोणत्याही कंपनीने आपला निव्वळ नफ्याच्या 2% रक्कम सामाजिक उपक्रम म्हणजे शिक्षण, आरोग्य, सामाजिक कामे, संसाधन निर्मिती यासारख्या उपक्रमांवर खर्च करणे बंधनकारक आहे.
महाराष्ट्रात सर्वाधिक कंपन्या आहेत, यापैकी 204 कंपन्या अश्या आहेत की ज्यांचे उत्पन्न 2017 साली 5000 कोटी किंवा त्यापेक्षा अधिक होते. प्रत्येक कंपनीने आपल्या CSR चा 1% केंद्राला आणि 1% राज्याला दिला असता तरी खूप मोठा दिलासा राज्याला मिळाला असता. पण हावऱ्यासारखे सगळे आम्हालाच पाहिजे या आडकाठीवर अडून बसलेल्या मोदी सरकारने राज्यांना हा दिलासा देणे योग्य समजले नाही. कंपन्यांनी राज्याला मदत केली तर ती CSR समजली जाणार नाही. अश्यावेळी कंपनी कशाला राज्याला मदत करेल? मोदी सरकारने आधीच महाराष्ट्राचे करापोटीचे 16600 करोड दाबून ठेवले आहे. त्यामुळे राज्याला भयानक आर्थिक संकटाला तोंड द्यायला लागत आहे. अश्यात CSR चा एक सहारा होता तो ही मोदी सरकारने गिळंकृत केला.
https://m.timesofindia.com/business/india-business/pm-cares-qualifies-for-csr-spend-donations-to-cm-relief-fund-out-of-its-ambit/articleshow/75093289.cms
महाराष्ट्रच नव्हे तर प्रत्येक राज्यात कोरोनाशी लढण्यासाठी राज्यसरकारच प्रतीहल्ल्याच्या पहिल्या रेषेवर उभी आहे. राज्यच आरोग्याची कामे करतेय. राज्यच अन्न धान्याचे काम करतेय, राज्यच रस्त्यावरील लोकांना अन्नपुरवठा करतेय, राज्यच सर्व महत्वाच्या सेवांना आर्थिक साधने पुरवते आहे. अश्यावेळी CSR मध्ये राज्याचा सहायता निधीचा समावेश करणे केंद्राचे कर्तव्यच नव्हे तर जबाबदारी बनते. त्यांनी राज्यांचे हात मजबूत करणे अपेक्षित होते पण आधीच तिजोरी नंगी करून ठेवलेल्या धन्याला काय कळणार घरातील लेकरांना कसे खाऊ घालायचे. अर्थात त्याला स्वतःची लेकरे असती तर हे सगळे कळले असते.
-विकास अहिरे
लेखक कंपनी आणि मर्चंट लॉ चे प्रोफेसर आहेत.
११ एप्रि, २०२०
किसना ते डीवायएसपी कृष्णात पिंगळे - प्रेरणादायी प्रवास
किसना ते डीवायएसपी कृष्णात पिंगळे - प्रेरणादायी प्रवास
√पोटाची खळगी भरण्यासाठी तिकटीवर नैवैद्य म्हणून ठेवलेला भात खाणारा , घुगळात कैताळ वाजवून, शेतात भांगलायला जाऊन , सेंटरिंग काम करून आणि दगड घडवून आईला हातभार लावणारा किसना ते डी वाय एस पी कृष्णात पिंगळे हा प्रेरणादायी प्रवास .
# काही वेळा आपण माझ्याच समोर देवानं एवढ्या अडचणी का वाढून ठेवल्यात असं म्हणत दुःख कुरवाळत बसतो .पण आपल्या पेक्षा खुप जण असे असतात ज्यांनी आपण कल्पना करू शकत नाही , असा संघर्ष केलेला असतो .
डी वाय एस पी कृष्णात पिंगळे यांचा संघर्ष तर जगण्याला बळ देणारा असा आहे . आणि तानाजी पिंगळे सर यांनी खालील खस्ता या कथेत तो असा काही शब्दबद्ध केला आहे , वाचणाऱ्या च्या डोळ्याच्या कडा ओलावल्या वाचून राहत नाहीत .
नक्की वाचा आणि प्रेरणा घ्या .
#खस्ता .......!
कसबा बावडा, कोल्हापूर शहराला अगदी खेटून असूनही आपला ग्रामीण बाज टिकवून असणारं लहानसं गांव. याच गावात बावडं बंगल्यात, लोकराजा राजर्षी शाहू महाराजांची पहिली किलकारी उमटलेली आणि म्हणूनच गावाला एक वेगळंच महत्त्व व महात्म्य प्राप्त झालेलं. पश्चिमेकडून पूर्वेकडे वळसा घालून वहात येणाऱ्या पंचगंगा नदीने जणू बावड्याला आपल्या कुशितच सामावून घेतलं होतं. राजर्षींच्या संकल्पनेतून राजाराम महाराजांनी बावड्यात याच पंचगंगेवर देशातला पहिला कोल्हापूर पध्दतीचा बंधारा बांधून बावडा सुजलाम सुफलाम केला. आपसुकच आता बावड्याचा भाव वधारला होता, बावड्यात सोयरीक करनं म्हणजे आजूबाजूच्या पंचक्रोशितल्या लोकांसाठी प्रतिष्ठेचं ठरु लागलं. शाहूंच्या जन्मानं आणि सहवासानं पावन झालेल्या या गावात आठरा पगड जातीची लोकं गुण्या गोविंदानं नांदत होती. गावठाणात कवडे गल्ली, धनगर गल्ली, चव्हाण गल्ली, पाटील गल्ली, रणदिवे गल्ली, चौगले गल्ली, आंबे गल्ली अशा अडणावाला धरुन नायतर जातीला धरुन असलेल्या गल्ल्या दाटीवाटीनं उभ्या होत्या. गावच्या उत्तर - पूर्व भागात महारवाडा, डोंबारवाडा, चांभारटीकी (चांभारवाडा) वसली होती.
धनगर गल्लीच्या मधोमध पिराजी कारभाऱ्याच्या दाराम्होरल्या शेवग्याच्या झाडाखाली पार वजा कट्टा होता ज्यावर दिवसभर म्हाताऱ्या कोताऱ्यांचा अन् रिकामटेकड्यांचा राबता असायचा. सांच्यापारी मात्र दिवसभराच्या कामाच्या दगदगीतून घरला आलेल्या कामाठी लोकांची त्यात भर पडायची आणि गावातल्या, गल्लीतल्या बित्तम बातम्यांचा फड तिथं चांगलाच रंगायचा. पान सुपारी अन् बिडी काडीची देवाणघेवाण करत कधी दबक्या आवाजातल्या तर कधी चेकाळत खुमासदार चर्चांचा धुळ्ळा उडायचा. गल्लीतून जाणा - येणाऱ्याला तिथूनंच जावं - यावं लागायचं त्यामुळं तो कट्टा म्हणजे जणू गल्लीचा 'चेक पोस्ट' च होता ... तिन्हीसांजेची वेळ होती अन् नगरपालिकेच्या डांबावरचं दिवं मिणमिणायला चालू झालं. लांबनं कुणाच्या तरी घरातनं रिडीव वर लागल्याल्या लोकसंगीताच्या कार्यक्रमात धनगरी ओव्यांचा आवाज अस्पष्ट येत होता. कट्ट्यावर पाच सात पोक्त माणसं नेहमी प्रमाणं चर्चेचं गुराळ रंगवत बसली होती. इतक्यात जयरु रानग्याच्या कोपऱ्यावरनं दिव्याच्या जेमतेम उजेडात एक आकृती आदमासाणं पावलं टाकत येत होती. केरबा म्हातारा डोळं किलकिलं करत त्या आकृतीकडं बघत "कोण गा ह्यो लिजिम खेळत यालाय ...?" त्यावर तिथंच बसल्या बसल्या तोंडातल्या ऐवजाची लांबवर पिचकारी मारत शामा म्हणाला "अवं नाना लिजिम कुटला खेळतुय, म्हादू हाय न्हवं ह्यो ... म्हादू गंवडी ...!" दुसरा एकजण मधीच चकचकत म्हणाला "आरं आरं आरं गडी एकदम हालथेट झालाय जणू ..." इतक्यात म्हादूची स्वारी कट्ट्यासमोर येऊन थबकली. कांही सेकंदासाठी कट्ट्यावरची चर्चा थांबली त्यामुळं रेडीओवरल्या धनगरी ओव्यांचा खैंदूळ आता स्पष्ट ऐकू येत होता. एव्हाना सगळ्यांच्या नजरा म्हादूवर खिळल्या होत्या. म्हादू कट्ट्यावरच्या लोकांना न्ह्याळत एका जागी स्थिर उभं रहायचा प्रयत्न करत होता पण मधूनच अंगात पीर आल्यासारखा जागेवरच मागंफुडं झुकांड्या खात होता. म्हादूच्याच वारगीचा गोपाळ म्हणाला "काय महादेवराव, आज गाडी एकदम फारमात हाय ...?" त्यावर आवाजाचा कानोसा घेत म्हादूची नजर रस्त्यावर खिळली अन् तो शब्दांची जुळवाजुळव करत बोलला "फा..र..मात असूं..देल न्हाय तर शि..रीत असुं..देल, कु..णाच्या बा च्या पै..शाची पि..त न्हाई ... पदरच्या पैशाची पि..तूया ...!" असं एकदम कुर्र्यात म्हणून म्हादू झुकांड्या खात पुन्हा चालता झाला. कदाचित त्याला दारुडा म्हटल्यापेक्षा 'महादेवराव' म्हटलेलं खटकलं असावं, कारण त्याच्या कानाला म्हाद्या, म्हादू, म्हादा, म्हादू गंवडी फार तर म्हादू मिस्त्री अशा नावांची सवय झाली होती त्यामुळं 'महादेवराव' त्याला एकदम अपमानास्पन वाटलं असावं. तिरीमिरीत झुकांड्या खात चाललेल्या म्हादूच्या पाठमोऱ्या आकृतीकडं बघत सर्वजण हस्यात बुडाले. हराळे गुरुजींच्या दारापर्यंत कसाबसा गेलेला म्हादू तोल जाऊन पडला तसं सगळ्यांनी तिकडं धावनं घेतलं. गोप्यानं आणि आणखी एकानं म्हादूला उचलला इतक्यात गुरुजींच्या सोना काकूनं बिगीबीगीनं पाण्याचा तांब्या आणला. म्हादूला दोन घोट पाणी पाजलं आणि तसंच दोघा - तिघांनी अलगद उचलून त्याच्या घराकडं चालू लागले तशी त्यांच्या पाठीमागून गल्लीतली पोरंटारं गलका करत चालू लागली. तोपर्यंत जणू प्रसंगाचं गांभीर्य ओळखून एकानं तीन चार ढेंगतच म्हादूचं घर गाठलं आणि गडबडीनं म्हादूच्या बायका पोरांना हाका मारु लागला "छाया वैनी, छाया वैनी ... ऐ किस्ना ... आरं तुझा बा पडला न्हवं ...!" चौथीत शिकत असणारा म्हादूचा थोरला किस्ना शाळेतनं येऊन कायबाय अभ्यास करत बसला हुता तर त्याच्या शेजारीच थानचा असणारा न्हानगा संदिप ऐन उन्हाळ्यात ओल आलेल्या सोप्यात फाटक्या पोत्यावर गडद झोपला होता. म्हादूची मालकीण छाया रोजगारासनं परत येऊ पर्यंत न्हानग्या संदिपची जबाबदारी किस्नावरच असायची.
एव्हाना म्हादूला घेऊन समदं लटांबळं दारात पोचलं, खुज्या आणि अरुंद चौकटीतनं कसंबसं म्हादूला आत घेतलं. भुईवरच म्हादूला सप्पय झोपवलं, शेजा पाजाऱ्यांचं अन् पोराटोरांचं त्याच्यावर झगरं पडलं ... कोणतरी मध्येच म्हणत होतं "ऐ वारं सोडा, ... वारं इवुंदेल" तर कोणीतरी आपल्या अंगातल्या शर्टाच्या शेवटानं हवा घालण्याचा केविलवाणा प्रयत्न करत होता. एरवी फार कोणी दखल घेत नसणाऱ्या म्हादूची जरा कमी बडदास्तंच चालू होती. या सगळ्या गलक्यात संदिप झोपतनं उठला अन् त्येनं टाळा पसरला म्हणून किस्नानं त्येला कडेवर घेतला. इतक्यात मंजा म्हातारी गर्दीतनं वाट काढत गडबडीनं घरात शिरली. एकच गलका उडाला होता कुणाचा पायपोस कुणाला लागत न्हवता, वैतागून केरबा म्हाताऱ्यानं पोरास्नी एक झणझणीत शिवी हसडली आणि म्हणाला "काय राधा नाचालीया व्हय रं हीतं ... ?" त्यासरशी निम्म्याअधिक पोरांनी धूम ठोकली आणि थोडी घराच्या बाहेर जाऊन रेंगाळाय लागली. मंजा म्हातारी आपल्या लुगड्याचा घोळ सावरत म्हादूच्या शेजारी बूड टेकत हात म्हादूच्या गालापर्यंत न्हेत रागातचं कडाडली "आरं ए वाद्या, आलास का परत त्वांड फुडून घिऊन ...? दरोज ह्यो मूत प्यायलाच लागतोय ...? मडं बशिवलं त्या दारु इकणाऱ्याचं ... आरं देवानं सोन्या सारखी दोन लेकरं दिल्याती पोटाला ... गरतीची लेक अन् कामाचं इंजान असणारी बायकू तुला म्या फुडं हून करुन दिलीया ... अन् कसली ही अवदसा सुचतीया रं भाड्या तुला ...?" सगळेजण मंजा म्हातारीचा त्रागा अगदी एकाग्र चित्तानं कीर्तन ऐकल्यासारखं ऐकत होते. म्हादूचं थोबाड पार काळं निळं पडलं होतं. बापाची अवस्था अन् जमलेली गर्दी बघून दोन्ही पोरं भेदरून गेली होती. इतक्यात छाया मंद पावलं टाकत घरात आली. जमलेली गर्दी आणि पिऊन पडून आलेला न्हवरा तिला नवीन नव्हतं. तिनं म्हादूकडं अन् गर्दीकडं ढूंकूनही बघितलं नाही. उभ्या उभ्याच हातातलं गठूळं तिनं तिथच खाली टाकलं, त्यासरशी त्यातलं खुरपं, दोरी अन् घोळीची भाजी बाहेर पडली. आईला बघून किस्नाच्या कडेवर बसलेल्या संदिपचा आवाज आता टिपेला पोचला होता. गर्दीपासून थोडं बाजूलाच सवतासुभा मांडत छाया भिताडाला टेकून बसली तसं किस्नानं संदिपला तिच्याकडं दिलं. संदिपला छातीला लावून शुन्यात हरवलेल्या छायाला खेटूनच किस्ना दिनवाना चेहऱ्यानं उभा होता. . दररोज नवऱ्यामुळं चार चौघात होणाऱ्या शोभेनं छायाची अवस्था ढिकूळ विरगळल्यागत व्हायची. निपचीप पडल्याल्या म्हादाला जमल्याली माणसं "म्हादूनं कसं वागलं पायजेल" या विषयीचे डोस पाजत होते. थोड्याच वेळात सर्व गर्दी ओसरली.
रोजचं मडं त्येला कोण रडं ... छाया उठली तिनं हातापायावर तांब्याभर पाणी ओतून घेतलं. म्हादूच्याच रिकाम्या दारुच्या बाटलीत सुतळीची वात कोंबून, त्यात राकेल तेल घालून दिवा तयार केलेला, तो पेटवला. त्ये कोंदट, बसकं घर त्या दिव्याच्या मंद उजेडानं उजळून निघालं. एकच बाटली, त्या घरातल्या चौघांचं आयुष्य उध्वस्त करत होती आणि उजळत पण होती. तिनं काल रात्रीची चुलीतली राख उपसली नव्यानं त्यात शिणकुटं आणि खोडव्याचं भरान भरलं आणि चूल पेटवली. तीन चार भाकरी बडीवल्या, लोटक्यात घोळीची भाजी केली. तसाही छायाच्या घरात आठवड्यातलं सात ते आठ वेळाच चूल पेटायची आणि त्यातल्या सहा ते सात वेळा घोळीची भाजीच शिजायची, कधीकधी पोकळा किंवा मग ठरलेली तेल-चटणी. एखाद्या जनावरानं जरा जरी घोळ जास्त खाल्ली की ते चिपळायचं पण छायानं आणि तिच्या पोरांनी एवढी घोळीची भाजी पचिवल्याली की आता त्यांनी आयुष्यभर कायपण खाऊदे निदान हगवाण तर कधीच लागणार नाय. छायानं पटकन दोन जरमलच्या ताटल्यातून किस्नाला आणि स्वतःला वाढून घेतलं आणि गटागटा भाजी भाकरी पोटात ढकलली. आज म्हादा निपचीप पडल्यामुळं यांच्या पोटात सहजासहजी घास पडणार होता. म्हादू अर्धवट शुध्दीत असला की छायाला, पोरांना ढोराला मारल्यासारखं मारायचा, तिच्याकडचं पैसे काढून घ्यायचा, शिजवलेल्या अन्नाची नासाडी करुन सगळ्यांना उपाशी पोटी झोपायला भाग पाडायचा. कधी कधी तो घरातलं हाय नाय ते पिठ, दानं इस्कटून टाकायचा अन् सगळ्यांना मुद्दाम उपास घडवायचा. पिऊन नसला म्हणजे म्हादू माणूस म्हणून लय भारी असायचा, गंवडी म्हणून तर तो पंचक्रोशित नावाजलेला पण पोटात आक्काबाई गेली की त्याच्यातला राकूस जागा व्हायचा. सकाळी बांधकामावर गेलं की घराच्या मालकाकडून दारुसाठी पैसे घेतल्याशिवाय हा भाद्दर पायाडावरच चडत नसायचा. म्हणायचा "मला उतारा लागतोय, नायतर माझा हात चालत न्हाई." सकाळी त्यातल्या त्यात अंगापुरती पिणारी स्वारी संध्याकाळी मात्र लेजिम खेळतच घरला यायची. म्हादू स्वतःची कमाई तर दारुवर उडवायचाच पण छायाच्या रोजगारातनं येणारं पैसं पण तिला हानून बडवून काढून घ्यायचा. रोजगाराचं पैसं सांभाळून आठवड्याचा बाजार भरेपर्यंत तिची दमछाक व्हायची कारण शनिवारी म्हादू तिच्या रोजगाराच्या पैशावर टपूनंच असायचा. तरी छायाचा भाऊ, विठ्ठल तसा धा वाट्यानं चांगलाच म्हणायचा, तो पण सेंट्रींग कामाला जायाचा घरात आई, बायको आणि तीन पोरं अशी सहा खाणारी तोंडं तरीपण त्येचा जीव भणीकडं आणि भाच्यांच्याकडं वडायचा. हातावरलं पोट असूनही तो आपल्या बाजारातला मूठ-पसा तिला देऊन तिच्या मोडक्या तोडक्या संसाराला हातभार लावायचा.
किस्नानं दिवा विझवला. दोन्ही पोरांच्या मध्ये छायानं आपली पाठ भुईला टेकवली. छायाच्या सर्वांगाला घामाचा, काळ्या मातीचा अन् उसाच्या पाल्याचा समिश्र असा वास यायचा, किस्नाला तो सुवास हवाहवासा वाटायचा. उसाचा पाला कापल्यानं तिच्या हातावर अन् चेहऱ्यावर चरं पडल्यागत खरबडीतपणा जाणवायचा. छायाच्या खरबडीत अंगाला बिलगून ती पोरं सुखानं निजायची. घराच्या लोंबकळत्या आड्याकडं बघत, उद्याच्या दिवसाचा विचार करत ती झोपी जायची. दररोज सकाळी कारखान्याच्या भोंग्याला पहाटे चारला उठायची. ऊन, वारा, पाऊस कोणताही ऋतू असो बारडीभर गार पाणी कसंबसं अंगावर ओतून घ्यायची. झोपेतल्या पोरांच्या तोंडाकडं एक करुण कटाक्ष टाकून नावापुरता असणारा घराचा दरावाजा पुढं करुन ती बाहेर पडायची. आता तिला बागवानाचं रान गाठायचं असायचं. तिथं गेल्यावर भेंडी, कोतंबीर, कोबीचं, फ्लावरचं गड्ड तोडायचं, डालग्यात व्यस्थित शिगोशीग भरायचं त्याच्या वरुन पांढरा धडपा (कापड) टाकून चारी बाजूनं धडपा खोचून वज्ज सज्ज करायचं. सोबत गल्लीतल्या आणखी तिघी चौघी असायच्या. डोक्यावरचं वज्ज कोल्हापूरला बाबूजमाल तालमी जवळ कपिलतिर्थ मार्केटला पोचवायचं असायचं. साधारणपणे ५० ते ६० किलोची वज्जी घेऊन पहाटे पाचला यांची पायपीठ चालू व्हायची. बावडा ते कपिलतिर्थ मार्केट जवळपास ४ - ५ किलोमीटरचं अंतर, सर्वत्र सामसूम, गडद अंधार, निर्मणुष्य रस्ते यात डोक्यावरच्या वज्ज्याचा एकलयीत येणारा करकरणारा आवाज ती निरव शांतता भंग करायचा. बावड्यापासून दोन किलोमीटरवर इंग्रजांच्या काळातील एक मोठा बंगला होता, त्याच्या गेटच्या खांबावर दोन्ही बाजूला दगडात घारी कोरल्या होत्या त्यामुळं त्याला "घारीचा बंगला" असं नांव पडलं होतं. बावड्यातून कोल्हापूरला वज्जी वाहणाऱ्या बायकांचं ते विसावा घ्यायचं ठिकाण होतं. बंगल्याचं कंपाऊंड जवळपास साडेचार ते पाच फूट उंच होतं, वज्जी वाहणारी बाई आपलं कपाळ कंपाऊंडला लावायची अन् डोक्यावरचं वज्ज कंपाऊंडच्या रूंद दगडी भिंतीवर सरकवायची. शरीर घामानं आणि भाजीतल्या नितळून पडणाऱ्या पाण्यानं चिंब झालेलं असायचं ते डोक्यावरच्या चूंबळीच्या कापडानं टिपून घ्यायचं, पाच - सात मिनिटांचा विसावा झाला की परत कपाळ कंपाऊंडला टेकवून वज्ज अलगद डोक्यावर वडून घ्यायचं. इतक्या पहाटेचं वज्ज उतरु लागण्यासाठी किंवा उचलू लागण्यासाठी माणसं कुठून आणायची ? त्यामुळं त्यांनी घारीच्या बंगल्याच्या कंपाऊंडचा आश्रय घेतला होता. एकदा वज्जी वडून डोक्यावर घेतली की मग विनाथांबा बाबूजमाल गाठायचं. वज्ज उतरलं की बागवान दोन रुपये द्यायचा, हातावरलं ते एक एक रुपयाचं दोन ठोकळं बघून छायाचा वज्ज वाहून आलेला शीण मटमाया व्हायचा. पैसे कनवटीला लावून छाया लगोलग माघारी फिरायची ती जवळजवळ पळतच. आता पूर्णतः दिवस उजाडलेला असायचा, घराकडं येता येता त्यातनच ती वाटेत पडलेलं शेण, काट्या, चिपाडं जळणासाठी गोळा करत यायची. आल्या आल्या घरातलं मोठं - धाटं काम आटपायचं, छाया येऊस्तोवर किस्नानं स्वतःचं आवरुण संदिपचं आवरलेलं असायचं. उकिरड्यावर चुकून दोन तीन मक्याचं किंवा शाळूचं दानं पडावत अन् त्याच्यातून बळबळंच पोसवून चांगली हिरवीगार धाटं (रोपं) यावीत अगदी तसंच ही दोन्ही पोरं परिस्थितीमुळं लय काय निगा नसताना पण निरोगी आणि टुमटुमीत वाढत होती. रात्रीचा थोडा शिळा भाकरी तुकडा पोरांना अन् म्हादूला शिल्लक ठेऊन आर्धी एक भाकरी आणि चटणी दुमडूण फडक्यात बांधून खुरपं, दोरीचं गठूळं घेऊन पुन्हा भांगलणीच्या रोजगाराला ती पळायची. कारण तोपर्यंत पुठ्ठ्यातल्या बायका पांदिला लागलेल्या असायच्या. गल्लीत भांगलणीचं चार पाच पुठ्ठं होतं. हौसा म्हाराजनीचा (माळकरी), लिंगाबाईचा, खाडेबाईचा, मुक्तामावशीचा पुठ्ठा असं पुठ्ठ्यातल्या मुख्य बाईच्या नावानं तो ओळखला जायचा. प्रत्येक पुठ्ठ्यात १० ते १२ बायका असायच्या. छाया हौसा म्हाराजनीच्या पुठ्ठ्यात असायची. तसं या साऱ्याजणींची कौटुंबिक आणि अर्थिक परिस्थिती थोड्याफार फरकानं सारखीच होती त्यामुळं त्या एकमेकींना सांभाळून घेत. छायाचं जास्त पडकं होतं म्हणून सगळ्याच तिला समजून घ्यायच्या. भांगलणीच्या शेतात पोचून कामातली कापडं घालेपर्यंत साडे दहा व्हायचे. अंगाला पाला कापू नये म्हणून लुगड्यावरच फाटकं पँट शर्ट अन् डोस्क्याला टापर बांधलेल्या बायका बुजगावण्यागत दिसायच्या. शेतकऱ्यांनं कितीबी बोंबाललं तरी कामाला जुपी व्हायला अकरा वाजायचं. खुरप्यानं आता वेग पकडलेला, पाती थोड्या फुडं फुडं सरकू लागल्या अन् दोघी तिघींनी गिताचा फेर धरला ......
साळंला जातं बाळं
दूध देतू मी वाटी वाटी
माज्या त्या बाळायाला
लिनं इंगरजी येण्यासाठी ....!
साळंला जातं बाळं
खाया देतु मी खारीइकं
माज्या त्या बाळायाचं
लिनं इंगरजी बारइकं .....!
कामाचा शीण अन् संसारातलं दुःख हालकं करायला ही गितं नकळत हातभार लावायची. दुपारी दोनला भाकरी खायाला सुट्टी झालेली. भाकरी तुकडा खाऊन कोण राकुंडी (मिसरी) लावत बसलेलं तर कुणी घटकाभर तिथंच बांधाला अंग टाकून दिलेलं. छाया रंजीस हून हौसा म्हाराजनीकडं आपलं मन हलकं करत म्हणत होती "आत्ती, .... माझ्यासारखा नाचारगत देवानं कुणालाबी दिऊनी ...!" त्यावर हौसा तिला चार ज्ञानाच्या गोष्टी सांगायची "छाया, दिस काय घर करुन र्हाइत न्हाईत ..... खऱ्याला कस असतुय .... दम काड .... देवानं सोन्यासारखी दोन पोरं दिल्याती .... 'जगल बाळ आणि फिटल काळ' ... तू घट र्हा ..." या आणि अशा शब्दांनी तिला हुरुप यायचा आणि राबायला बळ यायचं.
प्रत्येक मे महिन्याच्या सुट्टीत किस्ना पण छाया सोबत भांगलणीला जायचा. त्या पैशातून तो जुनी पुस्तकं निम्म्या किंमतीत विकत घ्यायचा. एरवी तो लगीन सराईत शनिवार, रविवार घुगुळ काढायला जायचा. बावड्यात कुणाचंही लगीन असलं की घुगुळ काढायची सुपारी द्यायला लोकं धनगर गल्लीत बिरु रानगे किंवा पांडू वडरा कडं यायचे. मग किस्ना त्यांच्या सोबत कैताळ वाजवायला जायचा. तेवढंच दोन पैसं मिळायचं अन् पोटभर जेवायला पण मिळायचं. लग्नात लाडू किंवा बूंदीचं जेवण असलं म्हणजे डोळा चुकवून खिशातनं आईला आणि संदिपला आणायचा. शनिवार, रविवार कायच काम नसंल तर तो विठ्ठल मामा संगं सेंट्रींग कामाला जायचा अन् आपल्या आईला तेवढाच हातभार लावायचा.
पावसाळा आला की छायाला रोजगाराचा दांडगा घोर लागायचा. औंदा पाऊसमान पण येगळच होतं. घाडघूड करत मिरुग निघाला, तरण्यानं दमानं सुरवात केलेली पण म्हातारा पिस्साळ्यासारखा वताय लागलेला. पावळणीत पाणी मावत नव्हतं. वळचणीचं पाणी घरात यायला वळंबत होतं. मी मी म्हणणाऱ्या घरास्नी गांडगळती लागलेली. छायाचं घर वलीनं फितफितल्यालं. साऱ्या घरभर गळत होतं, घरातलं हुतं नव्हतं ते भांडं राख टाकून गळत्याखाली ठेवलं होतं. पावसानं एकसारखी जुपी केलेली अन् त्यामुळं वातावरण एकदम गारन्दाळल्यालं, गारठ्यानं गल्लीतली दोन म्हाता-कोतारी जुनी-पानी झालेली. माणसं घरात खुळांबून पडलेली. छायाचं आता पारंच खुटलेलं, पाऊस काय थांबायचं नांव घेत नव्हता. मन घट करुन ती उठली, लुगड्याचा खोपा खवला, खुरपं-दोरी घेतली, मेन कागदाची घुंची (खोळी) करुन अंगावर घेतली अन् कंबरंबर काथ्यानं बांधली. गळत्याखाली ठेवलेल्या भांड्यांच्यामधनं वाट काढत तिनं दार उघडलं. बाहेर पाऊस जणू मोग्यानं वतत होता, दार बंद करुन निर्धारानं पावलं टाकत ती निघाली. चौकडंनं अंधारुन आलेलं. बाहेर एक चिटपाखरु सुध्दा दिसत नव्हतं. झपाझप पावलं टाकत छाया मांगूड्यातनं पुढं दादा पाटलाच्या पांदिला लागली. आता ती दादा पाटलाच्या बांदावर उभी होती. रानाच्या सऱ्या पाण्यानं समडम भरलेल्या. कानोसा घेऊन ती ऊसात शिरली. जवळजवळ गुडघ्याएवढं पाय चिखलात रुतत होतं, तसंच सावरत तिनं टराटरा पाला कापला, बघता बघता गरगरीत बिंडा तयार झाला. बिंडा डोक्यावर घेऊन बाहेर पडणार इतक्यात दादा पाटलाचा गडी दत्त म्हणून हजर. छाया वरामली. त्यानं बिंडा गोठ्यात टाकायला लावला अन् तो छायाला तडाडा बोलू लागला "तुला काय माणसाचा आकार हाय का ? ऊस पडतुया म्हणून आमी पाला काडत न्हाई, आमची जनावरं इथं वाळल्या वैरणीवर ठेवल्यात आणि आमच्या ऊसाची वाट लावून तुमी तुमची घरं भरा ... आमाला काय इथं उपडाय ठेवलय व्हय मालकानं ...?" छायानं हाता पाया पडत मिणत्या केल्या, पण गडी काय नमना ... हौसा म्हाराजनीच्या पुठ्ठ्यात कामाला असतोय म्हणून सांगितल्यावर निम्मी वैरण काढून घेऊन छायाला सोडली. वैरणीच्या टंचाईमुळं तेवढ्या बिंड्याचं सुध्दा तीला चांगलं पैसं आलं. छाया मनात हरखलेली, आज तिची चूल पेटणार होती. चिखलामुळं आणि सतत पाण्यात असल्यानं छायाच्या पायाला खत उठलेलं. बोटांच्या बेचकांडात बारीक जखमा झालेल्या अन् बोटं सुजून रताळावानी झालेली. त्यावर गेली चार दिवस छाया झोपताना शिंद्याच्या परड्यातली मेंदी पाट्यावर वाटून लावायची नाहीतर येशेल तेलाचा बोळा फिरवायची पण तेवढयानं काहीच सलाम पडला नव्हता. जालीम उपाय म्हणून आज तिनं खराब झालेल्या औषधाच्या दोन-तीन गोळ्या उगळून लावल्या अन् दोन पोरांच्या मध्ये अंथरूणाला पाठ लावली. पाला काडाय उद्या कुणाच्या रानात शिरायचं ? या विचार तंद्रीत ती झोपून गेली.
किस्ना आता दहावीला गेलेला. शाळा, घरचं काम आटपून त्यानं अभ्यासावर लक्ष केंद्रीत केलेलं. किस्नाला आधीपासनंच गोष्टीची पुस्तकं, चांदोबा, चंपक, वाचायला आवडायची, त्यात आता त्याच्या हातात आण्णा भाऊंची फकिरा पडली, त्याला ती कादंबरी खूप आवडली. फकिरा वाचताना किस्ना एकांतात खूप रडायचा. कादंबरीतला एखादा सोशिक अन् हळवा प्रसंग आला की तो पटकन उठून घराबाहेर यायचा, गल्लीच्या खालच्या बाजूला SRPF वाल्यांचा Camp वसलेला होता त्यांच्यासाठी राखीव जागा होती तिथं पिंपळाचं दांडगं झाड होतं अन् त्याच्या खाली छोटसं दत्त मंदिर होतं, हा तिथं यायचा अन् हमसून हमसून रडायचा. घरात रडलं तर छाया इचारंल, काळजी करंल, म्हणून त्यानं ही इगत शोधलेली. अवांतर वाचनामुळं किस्नाला लय मोठा मंत्र मिळाला "शिक्षण म्हणजे वाघिणीचं दूध, जो पितो, तो गुरगुरतो." म्हणूनच "कितीबी खस्ता खायाय लागुंदे आपुण शिकायचं" असा चंगच त्यानं बांधला होता. एखादी कादंबरी किंवा पुस्तक मिळालं की तो आधाशासारखं त्यावर तुटून पडायचा. शिवाजी सावंतांची छावा, विश्वास पाटलांची झाडाझडती यांचा अक्षरशः त्यानं फडशा पाडला. तो इतका एकरुप होऊन वाचायचा की, वाचताना कादंबरीतल्या प्रत्येक पात्राशी त्याचं भावनिक नातं तयार व्हायचं आणि त्यांच्या दुःखानं त्याला गलबलून यायचं. कुठंतरी त्यांच्यावरल्या अन्यायानं चरफडायचा. त्यातूनच आता तो म्हादू छायावर करत असलेल्या जाचाबद्दल त्याला जाब विचारु लागला होता. "मी काडल्यालं पोरगं मला गुरगुरतय्" या भावनेनं म्हादू जास्तच इरंला पेटायचा आणि उठता बसता किस्नाला पाण्यात बघायचा..... एका रविवारी अप्पू (आप्पाजी) देवरशाची मेंढी कशानं तरी मेली, मेलेली मेंढी कापून देवरशानं पांडू वावऱ्याच्या घरात वाटं घातलं होतं. म्हादूला ते समजलं, अन् तो तिथं गेला. म्हादूनं देवरशाला अधिकारवाणीनं गळ घातली "देवा मला अर्दा किलूचा वाटा पायजेल, पुढच्या शनवारच्या पगाराला तुला पैसं देणार ....!" देवरशी एकदम भला माणूस, तो हासला कारण त्याला माहीत होतं की म्हादूचा पुढला शनवार कवाच उजाडनार नाही, तरी पण त्यानं म्हादूला वाटा उचलून दिला. म्हादू हरखून टूम्म हून घरात आला तर अजून बायकूचा पत्ता नव्हता. त्यानं संदिपला गल्लीत आणि किस्नाला वैरणीच्या मंडईत छायाला बघायला पाठीवलं. येतानाच म्हादू निम्मी आर्धी लेव्हल लावून आलेला, भगुन्यातलं मांस बघून त्याला कड निघत नव्हता, त्यात आज छायाला वैरण इकून यायला प्रमाणापेक्षा जास्त वेळ लागत होता. छाया आणि तिला बघाय गेल्याली पोरं कुणाचाच पत्ता नव्हता. आता म्हादाचं टाळकं जास्तच सटकलं, पार्सल आणल्याली आर्धी बाटली पण त्यानं उभ्या उभ्याच घशाखाली रिकामी केली आणि तोंड एकदम वंगाळ केलं. भिरमिटीत तशीच चूल पेटवली आणि भगुन्यातलं मांस चुलीवर ठेवलं. चुलीतला जाळ भांड्याच्या बाजूनं बाहेर जिभळ्या टाकत होता अन् त्यासरशी भांड्यातलं मटन रटरटत होतं. म्हादा आता बार भरुनच बसला हुता छायाची वाट बघत. दारु त्याच्या डोळ्यात उतरली होती त्यामुळं डोळं तांबारल्यावाणी दिसत होतं अन् त्याचा काळा निळा झालेला चेहरा जास्तच भेसूर दिसत होता. रात्री नऊच्या सुमाराला छाया आणि किस्ना वैरणीचा बिंडा विकून आले. म्हादू दारातच ठेंगडं घिऊन नाक फेंदरुन बसला होता. आल्या आल्या त्यानं छायाच्या पायावर दोन ठेंगडी उडीवली. किस्ना मध्ये पडल्यामुळं त्याच्या पाठवाणात एक ठेंगडं बसल्यालं. आजूबाजूच्या लोकांचं ऐकण्याच्या मनःस्थितीत तो नव्हताच. घरात गेलेल्या छायाला त्यानं दरादरा वडत भाईर काढलेलं. "रांडं ... माज्या घरात पाय ठेवायचा नाय" म्हणत किस्नाच्या अन् छायाच्या अंगावर धा धाऊन जायाला लागला. रोजच्या कटकटीला छाया पण वैतागलेली, एका हातानं तिनं संदिपचा हात धरला अन् दुसऱ्या हाताला किस्नाच्या बावखुड्याला धरुन ती म्हादूला म्हणाली "गांडीत घालून घे तुझं घर ... चला रं ...." भेदरलेल्या संदिपनं इचारलं "आयं आता कुटं जायाचं आपुण ...?" त्यावर हताश हून छाया म्हणाली "कुटं बी जाऊ ... नायतर पंचगंगत उड्या टाकून जीव दिऊ पर आता इथं र्हायाचं नाय ..." तसा किस्नानं आईचा खरबडीत हात हातात घेतला आणि तो बोलू लागला "आई, असं बोलू नकोस, माझी दहावी हाय. बघता बघता अकरावी बारावी हुईल, मग D Ed झालं की मला मास्तर म्हणून नुकरी लागलं ... तू, मी, आपुण साऱ्यानीच आतापर्यंत लय सोसलय्, थोडा कड काडू ... शिजूस्तवर थांबलोय आता निऊस्तवर थांबू ...!" वयाच्या मानानं किस्ना जास्तच समजुतदार आणि जबाबदार झाला होता. छायाला किस्नाच्या इचारांचं कौतिक वाटंत होतं. किस्नाची दहावीची पूर्व परिक्षा चालू होती म्हणून त्यांनं इथंच बावड्यात र्हायाचं अन् म्हादूचा राग शांत होईस्तोवर चार दिवस छायानं आणि संदिपनं वडिंग्याला विठ्ठलकडं जायाचं ठरलं. छायानं किस्नाच्या गालावरनं हात फिरवलं आणि आपल्या कानाच्या बाजुला कडाकडा बोटं मोडून त्याचा आलाबाला घेतला. संदिपला घेऊन तीनं आता वडिंग्याचा रस्ता धरला. इकडं म्हादूनं एकट्यानं शिजीवल्यालं मटन रगडून चापल्यालं आणि किस्ना घरात येईल म्हणून दरवाजातच पहारा देत बसलेला. रात्रीचं दहा वाजलेलं, बा तर घरात घेणार नव्हता अन् भुकंनं जीव कासावीस झालेला. शेजा पाजाऱ्यांकडं खायला मागणं, त्या मानी आईच्या गुणी पोराला अजिबात पटणारं नव्हतं. किस्ना आता तिकटीवरल्या हापशावर आला, पाणी प्यायचं आणि दत्त मंदिरात जाऊन झोपायचं असं ठरवून पाणी उपसणार इतक्यात तिकटीवर उदकाडी सारखं काय तर चमकताना त्येला दिसलं. जवळ जाऊन बघतोय तर एका बारक्या शिबड्यात शिगोशीग भात भरला हुता, त्यावर गुलाल टाकला होता, त्यावरच लिंबू कापून त्याला हळद, कुंकू, बुक्का लावून ठेवलेला आणि भातात नाडापुड्याचं (उदकाडीचं) झाड खवल्यालं. कुणाच्यातरी घरात आज शांतीसाठी होम घातल्याला, त्याचा निवद नुकतच कोणतर तिकटीवर ठेऊन गेलेलं. एकीकडं पोटात भुकंचा आगडोंब उसळलेला अन् दुसरीकडं शिबडं भरुन ऊन ऊन भात. काय करावं ? ... खावा का नको या विचारतंद्रित असतानाच दोन कुत्री हुंगत हुंगत शिबड्याच्या बाजूला आलीत, शिबड्यात तोंड घालणार इतक्यात किस्नानं ते उचललं. मागला म्होरला इचार न करता तो दत्त मंदिरात गेला, भातात खवल्यालं नाडापुड्याचं झाड देवासमोर लावलं, गुलाल टाकलेला भात वरच्या वर अलवार काढून टाकला, हळद-बुक्क्का अन् गुलालात लिडबिडलेला लिंबू हपशावरनं धुऊन आणला. आता स्वच्छ झालेला तो रसरशीत लिंबू त्यानं शिबड्यातल्या भातावर पिळला आणि बकाका भाताचं तोबरं भरायला चालू केलं. पाच सात मिनटात शिबडं सुपडासाफ झालं. रिकामं शिबडं हपशाजवळ ठेवलं, पाणी हापसून घळाघळा पाणी प्याला आणि जाऊन पिपळाच्या झाडाखाली मंदिराच्या लाईटला गडद अभ्यास करत बसला.
किस्ना दहावीची बोर्डाची परिक्षा फस्ट क्लासनं पास झाला. त्याला ६२% मार्क पडलं. छायाला आनंद झाला. किस्नानं कला (आर्टस्) शाखेला विवेकानंद काॕलेजात प्रवेश घेतला. विठ्ठलनं भाच्याला एक जुनी सायकल घेऊन दिली. सकाळी सात ते दुपारी एक वाजेपर्यंत तो काॕलेज करायचा, त्यानंतर तिथनंच तो मामलेदार कचेरीत चंदू भोसले नावाच्या स्टँप व्हेंडरकडं लिहीणावळीचं काम कराय जायचा. संध्याकाळी साडेपाच वाजता तिथनं सुटायचा ते सायकल दामटत थेट छाया रोजगाराला गेलेल्या रानात. छायानं दिवसभर काढलेली वैरण दोघं मायलेकरं सायकल मध्ये भरायचे अन् मग वैरणीनं भरलेली सायकल ढकलत किसना वैरण मंडईत येवून ठेपायचा. मागोमाग छाया असायची, मंडईत बाकीच्या बायकांची आलेली वैरण आणि गिर्हाईक बघून, कधी घासाघीस करत तर कधी वडून (अडून) धरत चार पैसे जास्त पदरात पाडून घेऊन मायलेकरं समाधानानं घरला जात. वैरणीच्या मिळालेल्या पैशातनं जाता जाता छाया घरात रातच्या जेवणाला असल्या - नसल्यालं सामान घेऊन जायची. छायाच्या घरातली चूल आता बऱ्यापैकी दररोज पेटत होती. म्हादूच्या वागण्यात लय काय फरक नव्हता. आता दोन्हीही पोरं नेटकी झालेलीत अन् छाया पण खमकी झालेली, तिघांचं चांगलंच मुटान झालेलं त्यामुळं ती आता म्हादूला अजिबात मेचत नव्हतीत. म्हादूच्या बाबतीत एक फरक मात्र पडला होता, पूर्वी तो दारू पिऊन पडला की बाहेरील कुणी-बुणी उचलून आणून त्याला घरात सोडायचं, आता ते काम किस्ना अन् संदिप करायचे. काॕलेजला जात असल्यामुळं किस्ना आता काॕलेज कुमार झाला होता, पडलेल्या म्हादूला उचलून आणताना, आईच्या वैरणीची सायकल ढकलताना त्याच्या काॕलेजातल्या, वर्गातल्या मुली बघायच्या अन् फिदीफिदी हसायच्या, तो ओशाळायचा आणि दुर्लक्ष करायचा. त्याच्या सोबतची मुलं काॕलेजमध्ये फॕशनेबल कपडे आणि भारीतला सेंट मारुन यायचे, काॕलेजात मजा मस्ती करायचे, विलायती सायकली, महागड्या गाड्या फिरवायचे आणि हा मात्र आपल्या सायकल वरुन घर, काॕलेज, मामलेदार कचेरी, बावड्याच्या पांदी आणि शेतकऱ्यांचं बांद झिझवायचा. कमी वयात येऊन पडलेली जबाबदारी पेलताना त्याची अक्षरशः कुत्तरवड व्हायची. काय करणार ...? जबाबदारी वय पाहून थोडीच येते ...? .... पण एकदा का माणसावर येऊन पडली, की त्या माणसाचं खांदं आणि मन दोन्ही मजबूत करुन जाते. किस्नाच्या डोक्यात सदानकदा शिक्षण आणि काम याच्याच जोडण्या असायच्या. गल्लीतील वावऱ्यांचा उत्तम पूर्ण कोल्हापूरभर कागदी जाहीराती चिटकवायची, कापडी बॕनर बांधायची कामं घ्यायचा. हे काम रात्रीचंच करावं लागायचं. उत्तम बरोबर विनायक, पिंट्या, कोकऱ्यांचा अशोक ही पोरं सुध्दा काॕलेज करत रात्री कामाला जायची. किस्नानं ठरवलं आपण पण त्यांच्याबरोबर रात्रीचं कामाला जायचं, तेवढच जादाचं दोन पैसे मिळतील. माणसामध्ये काही गुण रक्ताच्या प्रवाहाबरोबर येतात, न थकता कष्ट उपसण्याचा गुण कदाचित छायाच्या रक्तातूनच किस्नाच्या रक्तात आला होता. दिवसभर धावपळ करुन, रात्र रात्रभर किस्ना खांद्यावर दहा पायंड्याची शिडी घेऊन कोल्हापूरच्या सामसूम रस्त्यावर जाहीराती चिकटवत अन् बॕनर बांधत फिरत होता. या काळात दारिद्र्याच्या सानेवरती जणू धैर्यालाच धार चढत होती.
अशातच बारावीचा निकाल लागला, किस्ना विशेष प्राविण्यानं पास झाला ७५% मार्क पडले. किस्नाला निगव्याच्या प्रताप D. Ed काॕलेजला प्रवेश मिळाला. संदिप पण औंदा सहावीला गेला होता. छायाची अन् किस्नाची उमेद वाढलेली. दिवसागणिक मायलेकरांना राबायला एक आगळंच बळ येत होतं. एके दिवशी पडल्यालं निमित झालं अन् दारुनं खंगलेला म्हादा मरुन गेला. फार काय कुणाला दुःख झालं नाही त्यामुळं म्हादाचं मडं कुणी गाजीवलंच नाही. जगाच्या लाजंखाजं खातर छाया दोन तीन दिवस कधी-मधी गैवर घालून रडायची. तिसऱ्या दिवशी राख सावडली आणि सगळी आपल्या आपल्या कामाधंद्याला लागली. म्हादा सारख्या माणसाचं दुःख जास्त दिवस कुरवाळत बसणं त्यांना परवडनारं नव्हतं.
म्हणतात की उकिरड्याचा पण पांग फिटतो मग ही तर हाडामासाची माणसं होती, यांच्या कष्टापुढं, चिकाटीपुढं आणि जिद्दीपुढं देवानं अन् दैवानंही हात टेकलं, किस्ना D Ed चांगल्या मार्कानं पास झाला आणि त्याला मास्तर म्हणून Z P ला नोकरी पण लागली. छायाचं घोडं आता गंगत न्हालं होतं. किस्नानं छायाच्या हातातल्या खुरप्याला कायमची विश्रांती दिली. जगल बाळ अन् फिटल काळ, या म्हणीच्याही पुढं जात "शिकंल बाळ, अन् फिटल काळ" ही नवीन म्हण किस्नानं प्रचलित केली. पुढे पाच सात वर्षे सचोटीनं मास्तरकी करणाऱ्या कष्टाळू किस्नाला स्वस्थ बसू देत नव्हतं. त्यातूनच त्याने स्पर्धा परिक्षेची तयारी चालू केली, तिसऱ्या प्रयत्नातच तो थेट Dy. S. P. झाला... म्हादू गवंड्याचं पोर अधिकारी झालं. Dy. S. P. म्हणजे काय हे छायाला तर काय ठाऊक, लोकांच्या बोलण्यातून तिला इतकचं कळत होतं की किस्ना, तिच्या पोटचा गोळा, कोणतर लय मोठ्ठा सायब झालाय, पोरानं तिच्या नावाचा घाट मुलुखभर वाजिवला होता......... ....... किस्नाचं दिड वर्षाचं ट्रेनिंग संपलं होतं, आज किस्ना म्हणजेच कृष्णात महादेव पिंगळे, उपविभागीय पोलीस अधिकारी म्हणून सांगली जिल्ह्यातील तासगावचा पदभार घेण्यासाठी निघाला होता.
लाल दिव्याची गाडी हापशाजवळ येवून थांबलेली. दोन पोलीस गाडीजवळ तैनातीत उभे होते. किस्नाला बघताच दोघांनी कडकडीत सॕल्यूट ठोकला अन् एकाने अदबशीरपणे गाडीचा दरवाजा उघडला, किस्ना गाडीत बसला, हळूवार गाडीचा दरवाजा बंद करुन तो आॕडर्ली पोलिस गाडीत पुढच्या शीटवर बसला. ड्रायव्हरनं गाडी चालू केली, तिकटीला वळसा घालून गाडी कवडे गल्लीतून बाहेर पडून बावड्याच्या मुख्य रस्त्याला लागली, शुगरमिल चौक सोडून जुन्या सातारा रोडला लागलेल्या गाडीने आता चांगलाच वेग पकडलेला. रस्त्याच्या दोन्ही बाजूनं बावड्याची शिवारं हिरवा शालू पांघरूण वाऱ्याच्या झोक्यानं जाग्यावर हालत जणू किस्नाला अभिवादनच करत होती .... गाडीच्या खिडकीतून बाहेर बघणाऱ्या किस्नाला एकदम काहीतरी आठवलं, त्यानं गाडी थांबवायला सांगितली, ड्रायव्हरनं रस्त्याच्या कडेला गाडी थांबवली. गाडीतून तडक उतरुन झपाझप पावलं टाकत तो रस्त्याच्या पलिकडच्या बापू भिवाच्या नांगरलेल्या रानात शिरला अन् त्यानं एकदम वावरात जमिनीवर बसकंणच मारली ..... दोन्ही हातात काळी माती घट्ट धरत तो धाय मोकलून गदगदू लागला .... कधी काळी याच मातीत त्यानं, त्याच्या आईनं घाम गाळलेला, याच मातीत खुरपं चालवून त्यांच्या घरची चूल पेटायची ... याच मातीत तर रुजली होती त्याच्या यशाची बीजं. सोबतच्या पोलीसांची तारांबळा उडाली, काय करावं, त्यांना काहीच कळंना. किस्नानं स्वतःला सावरलं, कपाळ टेकवून तो त्या मातीसमोर नतमस्तक झाला, मातीनं भरलेली एक मूठ त्यानं तशीच पँटच्या खिशात सरकवली, उभं राहून त्या विस्तीर्ण शिवारावर कृतज्ञतेची एकवार नजर फिरवली अन् धीरगंभीर पावलं टाकत तो गाडीच्या दिशेनं चालू लागला. लांब कुणाच्यातरी वावरात भांगलण चालू होती, बायकांनी गिताचा फेर धरला होता. दुपारच्या शांत वातावरणात ते गित रस्त्यापर्यंत स्पष्टपणे कानावर पडत होतं ......
पायातं पायताणं,
बुटं वाजतो रिपिलीचा,
माजं नी तान्ह बाळं,
आजं हापीसं जाणाऱ्याचा ....!
त्या भांगलणीच्या पुठ्ठ्यात कितीतरी छाया असे अनेक किस्ना घडवण्यासाठी आपलं दुःख, कष्ट विसरुन तल्लीन होऊन गित म्हणत खुरपं चालवत होत्या.
किस्ना गाडीत बसला, अन् गाडीनं पुन्हा वेग पकडला .......!
कृषी अधिकारी हरी कांबळे यांचे Facebook वरून साभार